*रानी सीता जू* *'' बुंदेली इतिहास का एक उपेक्षित पात्र ''*
(1679 - 1771)
- रवि ठाकुर
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विंध्याचल पर्वत की लघु एवं उच्च श्रृंखलाओं, वनोपवन, अरण्यक उपत्यकाओं में विस्तारित, गंगा , यमुना, सिंध , नर्मदादि , पावन सलिलाओं की पुण्य धाराओं से आप्लावित पुलिंद धरा, अनादि काल से अन्यान्य संस्कृतियों, युगधर्मों की रंगभूमि तथा स्वर्गोपम जीवन की कालातीत केलिकुंज रही है ।
युग युगांतर से इस महान भूभाग की माटी में वैदिकता, पौराणिकता और इतिहासत्व के सृजन की गाथाओं के अनंत अधिष्ठान रहे हैं। रचनात्मक शौर्यानुक्रम, जहाँ इसे वीरप्रसूता स्थापित करता है, वहीं प्रेम, भक्ति, त्याग और बलिदान की सतत परंपराएँ, इसे देवत्व भाव की आख्याति प्रदान करती हैं ।
समृद्ध सांस्कृतिक भावभूमि, सृजनात्मक उत्सवप्रियता एवं उत्कट जिजीविषा से ओतप्रोत बुंदेली जनमानस, सदा सहज सचेतनता के शिखर पर रहा आया है। यहां के शासकों का हर युग की केंद्रीय सत्ता में प्रबल हस्तक्षेप अथवा प्रभाव रहा।
यह भारतवर्ष का वह पावन भूभाग है जहाँ आपद् समय, नारद, सनकादि, जमदग्नि, राम , कृष्ण तथा पांडवों ने भी शरण ली है ।
यही वह भूमि है, जहाँ दत्तात्रय, तुलसी, केशव, पद्माकर, भवभूति ने जन्म लिया। यही वो धरा है, जिसे महान राजपुरुषों अथवा महान नारियों सहित, महानतम संतो, मुनियों, तपस्वियों की साधनास्थली होने का गौरव प्राप्त है। इस पुण्य भूमि पर तपस्चर्या करने वाले महान ऋषि-मुनियों की अनंत श्रृंखलाओं के अलावा, विभिन्न राजवंशों के प्रादुर्भाव, सामुदायिक उद्भव तथा विकास की श्रेष्ठतम गाथाएं भी प्रतिष्ठित हैं ।
यहां भिन्न-भिन्न वंशानुक्रम से स्थापित राजवंशों म,ें सूर्यवंश, कालिकेय, चेदिे, भार नाग (ब्राह्मण ), वाकाटक ( ब्राह्मण ), प्रतिहार, कुषाण, चंदेल, परमार तथा बुंदेला वंशों ने विशाल साम्राज्यों की संस्थापनाएँ कीं, एका एक लघु राज्य, गौंड़, बघेल, गौरिहार ( ब्राह्मण ) , धँधेेरा, मराठा, बनाफर, खंगार, लोधी, दांगी आदि वशों के भी राज्य स्थापित हुए ।
राजवंशीय परंपरा के अंतिम चरण में, माँ विंध्यवासिनी के आशीर्वाद से, महोनी, गढ़कुंडार, ओरछा से क्रमागत महान बुंदेलाओं ने , गंगा, यमुना , नर्मदा , चंबल और टोंस नदियों के मध्य स्थित, इस संपूर्ण पुलिंद-दशार्ण-तुंगारण्य-वाकाटक-ज्जाक् भुक्ति-प्राकृत प्रदेश पर अपना साम्राज्य स्थापित किया।
इस भूमि पर, बुंदेला राजाओं के शासनकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा दी जाती है। एकीकृत बुंदेलखंड साम्राज्य के, टूटते-बिखरते, छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त होने की, कई पुनरावृतिओं के उपरांत भी, भारत के इस संपूर्ण हृदय प्रदेश पर, सर्वाधिक दीर्घकाल तक 1048 ईसवी से 1948 ईस्वी तक, (विक्रमी संवत 1105 से, जगम्मनपुर-महोनी से आरंभ होकर, अंग्रेज शासन से स्वाधीनता पश्चात, भारतीय गणराज्य में अंतिम बुंदेला रियासत दतिया का , विक्रमी संवत 2005 में विलय होने तक, अर्थात लगभग 900 वर्षों की कालावधि तक, बुंदेला राजाओं ने राज्य किया ।
इन, धर्मप्रेमी, प्रजावत्सल, न्यायप्रिय, शौर्यवान, बलशाली, त्यागी, बलिदानी, महान बुंदेला शासकों में , विंध्यदेव पंचम, सोहनपाल, कन्हर देव, रूद्रप्रताप, मधुकर शाह, चंपतराय, वीरसिंह देव, छत्रसाल, शुभकरण, दलपत राव, जैसे महान विजेता हुए, तो कुंवर हरदौल जैसे, देवत्व प्राप्त, अमर लोकनायक भी।
इस क्रम में बुंदेली राजवंश की नारियाँ भी, हर मायने में अपनी वंश मर्यादा के अनुरूप महानता की परिधि में आती हैं ।
बुंदेलों की राजधानी कुंडार से ओरछा लाने का कारण बनी महाराजा रूद्र प्रताप की महारानी मैना जू ( या मान कुँवरि ), भक्त शिरोमणि गणेश कुँवरि, पति की रक्षार्थ बुंदेलखंड में प्रथम स्त्री सैन्य दल गठन करने वाली वेरछा वाली रानी सारंध्रा, बुंदेलखंड की तमाम निःसंतान राजगद्दियों को अपनी संतति परम्परा से समृद्ध करने वाली, दीवान हरदौल की रानी हिमांचल कुँवरि, मृत सहोदर से भात लेने वाली कुन्जावती, पचास वर्षों से भी अधिक समय तक दतिया पर राज्य करने वाली रानी सीता जू, झांसी की मराठा शासक रानी लक्ष्मीबाई से टकराने वाली रानी रतन कुँवरि लड़ई सरकार, विमाता होकर भी छत्रपति छत्रसाल का लालनपालन करते जान न्यौछावर करने वाली लालकुँवरि, विजय कुँवरि, गुमान कुँवरि, रूप कुँवरि चरखारी, प्रकाश कुँवरि, मंशा देवी के नाम से विख्यात पँवाया की परमार कन्या मानसा कुँवरि, देवी माण्डूला के नाम से विख्यात रतनसेन की कन्या रत्नावली, तमाम रानी-महारानी-राजकुमारियाँ इस धराधाम पर अवतरित हुई, जिन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक, तथा प्रशासनिक गुण-धर्मों का पालन कर,यथेष्ट भूमिकाओं का निर्वाह किया।